भागती दौड़ती
लोहे के सरियों पे
चिंगार्हियों से खेलती
कभी थमती, कभी गरजती
चलती चलाती,
अनेको जीवन संजोये
कभी दुआएं, कभी गुबार झेलती
कभी सपने दिखाती, कभी उन्हें रफ़्तार देती
इतना लगाव हमें इनसे होगया
कि दुश्मन भी इसी का फायदा उठाते हैं
कई बार इन्हे जला कर
अपने दिल कि आग बुझाते हैं
मशीने इंसानों से बेहतर हैं
तभी तो हम इंसानो पर कम
इन पर ज्यादा ऐतबार केरते हैं
कभी रुस्वा, कभी दीदार करते हैं
क्या यह कभी रुकते समय सोचती होगी
कल मन नहीं है
जाने का, ले जाने का
रुक रुक के बोझ उठाने का
अब बस रुक के चलूंगी नहीं
थोडा सुस्ताउंगी, कहीं नहीं जाउंगी
एक नया रूप दिखलाऊंगी
जीवन का पड़ाव– ठहराव।
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